Thursday, 9 April 2015

यही है ज़िंदगी

यही है ज़िंदगी

आशीष बागरोडिया
क्या  है ज़िंदगी ?...आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो बहुत से खट्टे मीठे अनुभव टकराने लगते हैं.. तब आँखों के सामने तैरने लगते हैं ज़िंदगी के कई उतार चढ़ाव...कितने ही लोगों के संपर्क में आया..बड़े बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातें सुनी ..काफी कुछ पढ़ा..कई घटना चक्र से होकर गुजरा...एक घर में माता-पिता और बहन के साथ जीवन के 47 वर्ष भी गुजर गए....
13 नवंबर मेरे जीवन का बहुत कठिन दौर था...अपनी उम्र से 12 वर्ष छोटी बहन का अकस्मात चला जाना गंवारा नहीं होता. हमें छोड़ कर न जाने किस दुनिया में चली गई वो? अपने हाथों से उसका अंतिम संस्कार किया. उसकी अस्थियाँ बटोरी. जिसे मैंने बचपन से बढ़ते पलते हुए देखा हो...अपनी गोद में बिठाया हो उसकी चिता की राख के ढेर में से हड्डियां, आँख, खोपड़ी के टुकड़ों की तलाश की. बहुत कठिन था ये सब करना. दिल पर भारी बोझ लिए उसका अस्थि-कलश लिए अकेला नाशिक भी गया. वृद्धावस्था के कारण माँ-बाप का वहां जाना संभव नहीं था. समस्त अंतिम क्रियाएँ मेरे हाथों से संपन्न हुईं.  मुझे लगता है कि बस यही जिन्दगी है. भगवान की अद्भुत लीलाएँ हैं. बार बार प्रश्न मन में कौंधता है कि क्या यही ज़िंदगी है ???

जीवन के इस मोड़ ने काफी कुछ सोचने को विवश कर दिया. एक ही घर में हम सब हमेशा साथ रहे हैं ..परस्थितियों ने हमें ज्यादा एक दूसरे से मिलने नहीं दिया. मन के कोने में यह खटकने लगा है कि एक ही घर में रहकर इस जीवन की आपाधापी में हम कभी एक दूसरे को ज्यादा समय क्यों नहीं दे पाए? क्यों नहीं एक दूसरे से अधिक  मिल पाए...ऋचा की बीमारी के दौरान भी मैं उससे मिलने नहीं जा पाया. जब वो अंतिम घड़ियाँ गिन रही थी तब भी मैं पास नहीं था. जीवन की इस कड़वी सच्चाई ने मेरा जीवन दर्शन बदल दिया...यह मेरे जीवन का बहुत बड़ा सबक है. इस अनुभव के बाद मुझे नहीं लगता कि मुझे और कुछ पढने और समझने की आवश्यकता है. अब कोई साधना करने की भी जरुरत नहीं हैं. अध्यात्म का मर्म समझ में आने लगा है...  

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